कोई करता है जब हिन्दोस्तान की बात ए 'साहिल'
मुझे इक़बाल का क़ौमी तराना याद आता है
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राह-ए-हक़ में तुझे हस्ती को मिटाना होगा
बुज़-दिली तो वो कर नहीं सकता
दूर रहती हैं सदा उन से बलाएँ साहिल
मेरी आँखों में हुए रौशन जो अश्कों के चराग़
जुस्तुजू तेरी तरह ग़म तिरी क़ुर्बत क्या है
मज़ाक़-ए-ग़म उड़ाना अब मुझे अच्छा नहीं लगता
अब हक़ीक़त लग रहा है मेरा अफ़्साना मुझे
मरते दम तक सब मुझ को इंसान कहें
तिरी सूरत मुझे बताती है
जो असासा ज़िंदगी का उस ने जोड़ा उम्र भर
होश खो कर जोश में कुछ इस तरह मैं बह गया
मेरी नींदें हराम क्या होंगी