रात कमरे में ही भटकती रही
नींद भी बे-क़रार थी मेरी
ख़्वाब भी ऊँघने लगे सारे
मुझ को बिस्तर बुला रहा था बहुत
करवटें देखने लगी रस्ता
और तन्हाई शोर करने लगी
जागते जागते थका मैं भी
और फिर सुब्ह सुब्ह आख़िर-कार
मैं तिरी याद ओढ़ कर सोया
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ख़ामोशी
मैं उसे रोक न पाया
मेरी इक नज़्म
उदास चाँद
धुन
नज़र को भाए जो मंज़र पहन के निकला है
कबाड़-ख़ाना
मोहब्बत फिर से करते हैं
क़ातिल
जिस तरह धूप का रंगत पे असर पड़ता है
शायर
मुद्दत से जो बंद पड़ा था आज वो कमरा खोल दिया