'मोहसिन' अपनाइयत की फ़ज़ा भी तो हो
सिर्फ़ दीवार-ओ-दर को मकाँ मत समझ
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मैं लफ़्ज़ों के असर का मो'जिज़ा हूँ
वो बर्ग-ए-ख़ुश्क था और दामन-ए-बहार में था
तू कभी ख़ुद को बे-ख़बर तो कर
रात भर जीने से क्या शम-ए-शबिस्ताँ की तरह
बिछड़ के तुझ से मयस्सर हुए विसाल के दिन
ये मेरे चारों तरफ़ किस लिए उजाला है
क्या ज़रूरी है अब ये बताना मिरा
बे-ख़बर सा था मगर सब की ख़बर रखता था
जो मिले थे हमें किताबों में
ज़िंदगी गुल है नग़्मा है महताब है
लफ़्ज़ तो हों लब-ए-गुफ़्तार न रहने पाए
अगर यही है शायरी तो शायरी हराम है!