'मोहसिन' और भी निखरेगा इन शेरों का मफ़्हूम
अपने आप को पहचानेंगे जैसे जैसे लोग
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एक मुद्दत की रिफ़ाक़त का हो कुछ तो इनआ'म
ऐ मसीहाओ अगर चारागरी है दुश्वार
अगर यही है शायरी तो शायरी हराम है!
नेमुल-बदल
टेढ़ा सवाल
जिस का दर्द बटाओगे
'मोहसिन' अपनाइयत की फ़ज़ा भी तो हो
क्या ज़रूरी है अब ये बताना मिरा
ज़ाविया कोई मुक़र्रर नहीं होने पाता
अपना आप तमाशा कर के देखूँगा
ये तय हुआ है कि क़ातिल को भी दुआ दीजे
चाहत में क्या दुनिया-दारी इश्क़ में कैसी मजबूरी