एक मुद्दत की रिफ़ाक़त का हो कुछ तो इनआ'म
जाते जाते कोई इल्ज़ाम लगाते जाओ
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बे-ख़बर सा था मगर सब की ख़बर रखता था
जिस का दर्द बटाओगे
अज़्मत-ए-फ़न के परस्तार हैं हम
उस को चाहा था कभी ख़ुद की तरह
अभी कुछ और भी गर्द-ओ-ग़ुबार उभरेगा
चाहत में क्या दुनिया-दारी इश्क़ में कैसी मजबूरी
ज़ाविया कोई मुक़र्रर नहीं होने पाता
तू कभी ख़ुद को बे-ख़बर तो कर
'मोहसिन' और भी निखरेगा इन शेरों का मफ़्हूम
बे-सबब लोग बदलते नहीं मस्कन अपना
निगार-ए-सुब्ह-ए-दरख़्शाँ से लौ लगाए हुए
कोई सूरत नहीं ख़राबी की