अभी कुछ और भी गर्द-ओ-ग़ुबार उभरेगा
अभी कुछ और भी गर्द-ओ-ग़ुबार उभरेगा
फिर इस के बा'द मिरा शह-सवार उभरेगा
सफ़ीना डूबा नहीं है नज़र से ओझल है
मुझे यक़ीन है फिर एक बार उभरेगा
पड़ी भी रहने दो माज़ी पे मस्लहत की राख
कुरेदने से फ़क़त इंतिशार उभरेगा
हमारे अहद में शर्त-ए-शनावरी है यही
है डूबने पे जिसे इख़्तियार उभरेगा
शब-ए-सियह का मुक़द्दर शिकस्त है 'मोहसिन'
दर-ए-उफ़ुक़ से फिर अंजुम-शिकार उभरेगा
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