सूरज चढ़ा तो फिर भी वही लोग ज़द में थे
शब भर जो इंतिज़ार-ए-सहर देखते रहे
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पहले जो कहा अब भी वही कहते हैं 'मोहसिन'
चाहत में क्या दुनिया-दारी इश्क़ में कैसी मजबूरी
बदन को रौंदने वालो ज़मीर ज़िंदा है
लफ़्ज़ तो हों लब-ए-गुफ़्तार न रहने पाए
ता-देर हम ब-दीदा-ए-तर देखते रहे
ख़ंदा-ए-लब में निहाँ ज़ख़्म-ए-हुनर देखेगा कौन
ज़िंदगी गुल है नग़्मा है महताब है
उस को चाहा था कभी ख़ुद की तरह
क्या ख़बर थी हमें ये ज़ख़्म भी खाना होगा
ज़ाविया कोई मुक़र्रर नहीं होने पाता
है वज्ह-ए-तमाशा-ए-जहाँ दिल-शिकनी भी
इस लिए सुनता हूँ 'मोहसिन' हर फ़साना ग़ौर से