ख़ंदा-ए-लब में निहाँ ज़ख़्म-ए-हुनर देखेगा कौन
बज़्म में हैं सब के सब अहल-ए-नज़र देखेगा कौन
Javed Akhtar
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Anwar Masood
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तू कभी ख़ुद को बे-ख़बर तो कर
वो बर्ग-ए-ख़ुश्क था और दामन-ए-बहार में था
रौशनी हैं सफ़र में रहते हैं
जाने वाले सब आ चुके 'मोहसिन'
क्या ज़रूरी है अब ये बताना मिरा
नेमुल-बदल
जाम-ए-तही क़ुबूल न था ग़म समो लिए
उस को चाहा था कभी ख़ुद की तरह
दोस्तो बारगह-ए-क़त्ल सजाते जाओ
अपना आप तमाशा कर के देखूँगा
कोई सूरत नहीं ख़राबी की
अज़्मत-ए-फ़न के परस्तार हैं हम