कोई सूरत नहीं ख़राबी की
किस ख़राबे में बस रहा है जिस्म
Habib Jalib
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Faiz Ahmad Faiz
Gulzar
Jaun Eliya
Wasi Shah
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लफ़्ज़ तो हों लब-ए-गुफ़्तार न रहने पाए
पहले जो कहा अब भी वही कहते हैं 'मोहसिन'
क्या ख़बर थी हमें ये ज़ख़्म भी खाना होगा
क्या ज़रूरी है अब ये बताना मिरा
लफ़्ज़ों को ए'तिमाद का लहजा भी चाहिए
उस से मिल कर उसी को पूछते हैं
बदन को रौंदने वालो ज़मीर ज़िंदा है
किस क़दर नादिम हुआ हूँ मैं बुरा कह कर उसे
जाने वाले सब आ चुके 'मोहसिन'
ता-देर हम ब-दीदा-ए-तर देखते रहे
लफ़्ज़ों के एहतियात ने मअ'नी बदल दिए
ख़ंदा-ए-लब में निहाँ ज़ख़्म-ए-हुनर देखेगा कौन