लफ़्ज़ों के एहतियात ने मअ'नी बदल दिए
इस एहतिमाम-ए-शौक़ में हुस्न-ए-असर गया
Parveen Shakir
Allama Iqbal
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Faiz Ahmad Faiz
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पहले जो कहा अब भी वही कहते हैं 'मोहसिन'
दोस्तो बारगह-ए-क़त्ल सजाते जाओ
चाहत में क्या दुनिया-दारी इश्क़ में कैसी मजबूरी
अगर यही है शायरी तो शायरी हराम है!
उस को चाहा था कभी ख़ुद की तरह
ये मेरे चारों तरफ़ किस लिए उजाला है
जाहिल को अगर जेहल का इनआ'म दिया जाए
ख़बर क्या थी न मिलने के नए अस्बाब कर देगा
लफ़्ज़ तो हों लब-ए-गुफ़्तार न रहने पाए
है वज्ह-ए-तमाशा-ए-जहाँ दिल-शिकनी भी
क्या ख़बर थी हमें ये ज़ख़्म भी खाना होगा