उस को चाहा था कभी ख़ुद की तरह
आज ख़ुद अपने तलबगार हैं हम
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पहले जो कहा अब भी वही कहते हैं 'मोहसिन'
जाने वाले सब आ चुके 'मोहसिन'
ज़िंदगी गुल है नग़्मा है महताब है
बात कहने की हमेशा भूले
लफ़्ज़ों को ए'तिमाद का लहजा भी चाहिए
नज़र मिला के ज़रा देख मत झुका आँखें
अज़्मत-ए-फ़न के परस्तार हैं हम
अगर यही है शायरी तो शायरी हराम है!
बिछड़ के तुझ से मयस्सर हुए विसाल के दिन
'मोहसिन' और भी निखरेगा इन शेरों का मफ़्हूम
अब के मौसम में ये मेयार-ए-जुनूँ ठहरा है