अब के मौसम में ये मेयार-ए-जुनूँ ठहरा है
सर सलामत रहें दस्तार न रहने पाए
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अगर यही है शायरी तो शायरी हराम है!
जाने वाले सब आ चुके 'मोहसिन'
ज़िंदगी गुल है नग़्मा है महताब है
लफ़्ज़ों को ए'तिमाद का लहजा भी चाहिए
निगार-ए-सुब्ह-ए-दरख़्शाँ से लौ लगाए हुए
लफ़्ज़ तो हों लब-ए-गुफ़्तार न रहने पाए
'मोहसिन' और भी निखरेगा इन शेरों का मफ़्हूम
बिछड़ के तुझ से मयस्सर हुए विसाल के दिन
एहतिमाम-ए-रसन-ओ-दार से किया होता है
सहमे सहमे चलते फिरते लाशे जैसे लोग
एक मुद्दत की रिफ़ाक़त का हो कुछ तो इनआ'म
सदा-ए-वक़्त की गर बाज़-गश्त सन पाओ