ऐ मसीहाओ अगर चारागरी है दुश्वार
हो सके तुम से नया ज़ख़्म लगाते जाओ
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अब के मौसम में ये मेयार-ए-जुनूँ ठहरा है
तू कभी ख़ुद को बे-ख़बर तो कर
यूँही तो शाख़ से पत्ते गिरा नहीं करते
जो मिले थे हमें किताबों में
एक मुद्दत की रिफ़ाक़त का हो कुछ तो इनआ'म
सदा-ए-वक़्त की गर बाज़-गश्त सन पाओ
वो बर्ग-ए-ख़ुश्क था और दामन-ए-बहार में था
लफ़्ज़ों के एहतियात ने मअ'नी बदल दिए
जाने वाले सब आ चुके 'मोहसिन'
बे-सबब लोग बदलते नहीं मस्कन अपना
इबलाग़ के लिए न तुम अख़बार देखना
नेमुल-बदल