इबलाग़ के लिए न तुम अख़बार देखना
हो जुस्तुजू तो कूचा-ओ-बाज़ार देखना
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'मोहसिन' और भी निखरेगा इन शेरों का मफ़्हूम
जो मिले थे हमें किताबों में
जाने वाले सब आ चुके 'मोहसिन'
चाहत में क्या दुनिया-दारी इश्क़ में कैसी मजबूरी
अभी कुछ और भी गर्द-ओ-ग़ुबार उभरेगा
नेमुल-बदल
क्या ज़रूरी है अब ये बताना मिरा
एक मुद्दत की रिफ़ाक़त का हो कुछ तो इनआ'म
है वज्ह-ए-तमाशा-ए-जहाँ दिल-शिकनी भी
तू कभी ख़ुद को बे-ख़बर तो कर
ख़बर क्या थी न मिलने के नए अस्बाब कर देगा
वक़्त के तक़ाज़ों को इस तरह भी समझा कर