हमारी जान पे दोहरा अज़ाब है 'मोहसिन'
कि देखना ही नहीं हम को सोचना भी है
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बात कहने की हमेशा भूले
नज़र मिला के ज़रा देख मत झुका आँखें
ख़बर क्या थी न मिलने के नए अस्बाब कर देगा
'मोहसिन' और भी निखरेगा इन शेरों का मफ़्हूम
बदन को रौंदने वालो ज़मीर ज़िंदा है
ये मेरे चारों तरफ़ किस लिए उजाला है
एक मुद्दत की रिफ़ाक़त का हो कुछ तो इनआ'म
बना-ए-इश्क़ है बस उस्तुवार करने तक
बिछड़ के तुझ से मयस्सर हुए विसाल के दिन
अभी कुछ और भी गर्द-ओ-ग़ुबार उभरेगा
पहले जो कहा अब भी वही कहते हैं 'मोहसिन'
किस क़दर नादिम हुआ हूँ मैं बुरा कह कर उसे