बदन को रौंदने वालो ज़मीर ज़िंदा है
जो हक़ की पूछ रहे हो तो हक़ अदा न हुआ
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अभी कुछ और भी गर्द-ओ-ग़ुबार उभरेगा
ये मेरे चारों तरफ़ किस लिए उजाला है
ज़िंदगी गुल है नग़्मा है महताब है
इस लिए सुनता हूँ 'मोहसिन' हर फ़साना ग़ौर से
जिस का दर्द बटाओगे
ख़बर क्या थी न मिलने के नए अस्बाब कर देगा
है वज्ह-ए-तमाशा-ए-जहाँ दिल-शिकनी भी
अपना आप तमाशा कर के देखूँगा
सदा-ए-वक़्त की गर बाज़-गश्त सन पाओ
बे-सबब लोग बदलते नहीं मस्कन अपना
टेढ़ा सवाल