सदा-ए-वक़्त की गर बाज़-गश्त सन पाओ
मिरे ख़याल को तुम शाइराना कह देना
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पहले जो कहा अब भी वही कहते हैं 'मोहसिन'
इस लिए सुनता हूँ 'मोहसिन' हर फ़साना ग़ौर से
हक़ाएक़ को भुलाना चाहते हैं
जो मिले थे हमें किताबों में
दोस्तो बारगह-ए-क़त्ल सजाते जाओ
ख़ंदा-ए-लब में निहाँ ज़ख़्म-ए-हुनर देखेगा कौन
अभी कुछ और भी गर्द-ओ-ग़ुबार उभरेगा
सरों की फ़स्ल काटी जा रही है
सूरज चढ़ा तो फिर भी वही लोग ज़द में थे
तू कभी ख़ुद को बे-ख़बर तो कर
ज़ख़्म-ख़ुर्दा तो उसी का था सिपर क्या लेता