जो मिले थे हमें किताबों में
जाने वो किस नगर में रहते हैं
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क्या ख़बर थी हमें ये ज़ख़्म भी खाना होगा
ऐ मसीहाओ अगर चारागरी है दुश्वार
सहमे सहमे चलते फिरते लाशे जैसे लोग
जाने वाले सब आ चुके 'मोहसिन'
ख़ंदा-ए-लब में निहाँ ज़ख़्म-ए-हुनर देखेगा कौन
ये मेरे चारों तरफ़ किस लिए उजाला है
क्या ज़रूरी है अब ये बताना मिरा
लफ़्ज़ों के एहतियात ने मअ'नी बदल दिए
जाम-ए-तही क़ुबूल न था ग़म समो लिए
अज़्मत-ए-फ़न के परस्तार हैं हम
ये तय हुआ है कि क़ातिल को भी दुआ दीजे
लफ़्ज़ तो हों लब-ए-गुफ़्तार न रहने पाए