जाने वाले सब आ चुके 'मोहसिन'
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अपना आप तमाशा कर के देखूँगा
वो बर्ग-ए-ख़ुश्क था और दामन-ए-बहार में था
नैरंगी-ए-सियासत-ए-दौराँ तो देखिए
बदन को रौंदने वालो ज़मीर ज़िंदा है
किस क़दर नादिम हुआ हूँ मैं बुरा कह कर उसे
ज़ख़्म-ख़ुर्दा तो उसी का था सिपर क्या लेता
जो मिले थे हमें किताबों में
'मोहसिन' अपनाइयत की फ़ज़ा भी तो हो
बिछड़ के तुझ से मयस्सर हुए विसाल के दिन
बात कहने की हमेशा भूले
लफ़्ज़ों को ए'तिमाद का लहजा भी चाहिए