लफ़्ज़ों को ए'तिमाद का लहजा भी चाहिए
ज़िक्र-ए-सहर बजा है यक़ीन-ए-सहर भी है
Habib Jalib
Javed Akhtar
Rahat Indori
Jaun Eliya
Parveen Shakir
Mohsin Naqvi
Mir Taqi Mir
Anwar Masood
Allama Iqbal
Ahmad Faraz
Wasi Shah
Faiz Ahmad Faiz
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(1235) Peoples Rate This
वक़्त के तक़ाज़ों को इस तरह भी समझा कर
टेढ़ा सवाल
बदन को रौंदने वालो ज़मीर ज़िंदा है
निगार-ए-सुब्ह-ए-दरख़्शाँ से लौ लगाए हुए
एक मुद्दत की रिफ़ाक़त का हो कुछ तो इनआ'म
'मोहसिन' और भी निखरेगा इन शेरों का मफ़्हूम
ता-देर हम ब-दीदा-ए-तर देखते रहे
ये तय हुआ है कि क़ातिल को भी दुआ दीजे
जाम-ए-तही क़ुबूल न था ग़म समो लिए
कोई सूरत नहीं ख़राबी की
सहमे सहमे चलते फिरते लाशे जैसे लोग