बात कहने की हमेशा भूले
लाख अंगुश्त पे धागा बाँधा
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बदन को रौंदने वालो ज़मीर ज़िंदा है
बिछड़ के तुझ से मयस्सर हुए विसाल के दिन
जिस का दर्द बटाओगे
ज़िंदगी गुल है नग़्मा है महताब है
इबलाग़ के लिए न तुम अख़बार देखना
लफ़्ज़ों के एहतियात ने मअ'नी बदल दिए
ता-देर हम ब-दीदा-ए-तर देखते रहे
रौशनी हैं सफ़र में रहते हैं
नज़र मिला के ज़रा देख मत झुका आँखें
यूँही तो शाख़ से पत्ते गिरा नहीं करते
हमारी जान पे दोहरा अज़ाब है 'मोहसिन'
वक़्त के तक़ाज़ों को इस तरह भी समझा कर