रौशनी हैं सफ़र में रहते हैं
वक़्त की रहगुज़र में रहते हैं
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ख़बर क्या थी न मिलने के नए अस्बाब कर देगा
ज़ख़्म-ख़ुर्दा तो उसी का था सिपर क्या लेता
लफ़्ज़ तो हों लब-ए-गुफ़्तार न रहने पाए
यूँही तो शाख़ से पत्ते गिरा नहीं करते
वक़्त के तक़ाज़ों को इस तरह भी समझा कर
उस को चाहा था कभी ख़ुद की तरह
बात कहने की हमेशा भूले
बिछड़ के तुझ से मयस्सर हुए विसाल के दिन
ज़िंदगी गुल है नग़्मा है महताब है
सदा-ए-वक़्त की गर बाज़-गश्त सन पाओ
'मोहसिन' अपनाइयत की फ़ज़ा भी तो हो