किस क़दर नादिम हुआ हूँ मैं बुरा कह कर उसे
क्या ख़बर थी जाते जाते वो दुआ दे जाएगा
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है वज्ह-ए-तमाशा-ए-जहाँ दिल-शिकनी भी
जाम-ए-तही क़ुबूल न था ग़म समो लिए
दोस्तो बारगह-ए-क़त्ल सजाते जाओ
सूरज चढ़ा तो फिर भी वही लोग ज़द में थे
निगार-ए-सुब्ह-ए-दरख़्शाँ से लौ लगाए हुए
रात भर जीने से क्या शम-ए-शबिस्ताँ की तरह
उस से मिल कर उसी को पूछते हैं
ज़िंदगी गुल है नग़्मा है महताब है
लफ़्ज़ों को ए'तिमाद का लहजा भी चाहिए
हक़ाएक़ को भुलाना चाहते हैं
इबलाग़ के लिए न तुम अख़बार देखना
मैं लफ़्ज़ों के असर का मो'जिज़ा हूँ