अच्छा तो ये तीसरी फोटो वाली
सौ में आप को जचती है
आठ बजे... कल रात... यहीं ले आऊँगी
मैं शर्मिंदा हूँ
वो कलमोही लम्बी कार में
कोह-ए-मरी को चली गई
बाबू जी गर बुरा न मानें तो
इक बात कहूँ
मैं हाज़िर हूँ
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बे-सबब लोग बदलते नहीं मस्कन अपना
'मोहसिन' और भी निखरेगा इन शेरों का मफ़्हूम
ख़बर क्या थी न मिलने के नए अस्बाब कर देगा
है वज्ह-ए-तमाशा-ए-जहाँ दिल-शिकनी भी
कोई सूरत नहीं ख़राबी की
हक़ाएक़ को भुलाना चाहते हैं
चाहत में क्या दुनिया-दारी इश्क़ में कैसी मजबूरी
एहतिमाम-ए-रसन-ओ-दार से किया होता है
अभी कुछ और भी गर्द-ओ-ग़ुबार उभरेगा
किस क़दर नादिम हुआ हूँ मैं बुरा कह कर उसे
अपना आप तमाशा कर के देखूँगा
लफ़्ज़ तो हों लब-ए-गुफ़्तार न रहने पाए