शब जो मस्जिद में जा फँसे 'मोमिन'
रात काटी ख़ुदा ख़ुदा कर के
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क्या जाने क्या लिखा था उसे इज़्तिराब में
बहर-अयादत आए वो लेकिन क़ज़ा के साथ
दफ़्न जब ख़ाक में हम सोख़्ता-सामाँ होंगे
तुम भी रहने लगे ख़फ़ा साहब
उम्र तो सारी कटी इश्क़-ए-बुताँ में 'मोमिन'
थी वस्ल में भी फ़िक्र-ए-जुदाई तमाम शब
चल दिए सू-ए-हरम कू-ए-बुताँ से 'मोमिन'
इम्तिहाँ के लिए जफ़ा कब तक
हम समझते हैं आज़माने को
असर उस को ज़रा नहीं होता
दीदा-ए-हैराँ ने तमाशा किया
ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम