किसी को क़िस्सा-ए-पाकी-ए-चश्म याद नहीं
ये आँखें कौन सी बरसात में नहाई थीं
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किया न तर्क-ए-मरासिम पे एहतिजाज उस ने
सजनी की आँखों में छुप कर जब झाँका
है वहम जैसे कोई नक़्श ये दुहाई दे
इसी उमीद पे जलती हैं दश्त दश्त आँखें
बदन के दीवार-ओ-दर में इक शय सी मर गई है
मैं आँधी में रेज़ा रेज़ा इक फूल चुन रहा हूँ
कई ज़मानों के दरिया-ए-नील छोड़ गया
हुसैन ही था जो प्यासा उठा फ़ुरात से वो
उसी ने हिजरतें कुछ और भी बिताई थीं
अज़ाबों से टपकती ये छतें बरसों चलेंगी
कनार-ए-आब हवा जब भी सनसनाती है
वो सर्दियों की धूप की तरह ग़ुरूब हो गया