वो सर्दियों की धूप की तरह ग़ुरूब हो गया
लिपट रही है याद जिस्म से लिहाफ़ की तरह
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जिसे मैं छू नहीं सकता दिखाई क्यूँ वो देता है
हमारे बीच में इक और शख़्स होना था
कई ज़मानों के दरिया-ए-नील छोड़ गया
सजनी की आँखों में छुप कर जब झाँका
जो ख़स-ए-बदन था जला बहुत कई निकहतों की तलाश में
पहचान का असासा वो जब हार आएगा
शहर का रोग है जिस सम्त भी बस जाएगा तू
बराबर ख़्वाब से चेहरों की हिजरत देखते रहना
मैं संग-ए-रह हूँ तो ठोकर की ज़द पे आऊँगा
कनार-ए-आब हवा जब भी सनसनाती है
ज़रा सी देर जो ख़ौफ़-ए-दवाम ख़त्म हुआ
तबाह कर गया सब को मिरे घराने का