Ghazals of Mushafi Ghulam Hamdani (page 2)
नाम | मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी |
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अंग्रेज़ी नाम | Mushafi Ghulam Hamdani |
जन्म की तारीख | 1751 |
मौत की तिथि | 1824 |
जन्म स्थान | Amroha |
तुम्हारी और मिरी कज-अदाइयाँ ही रहीं
तुम गर्म मिले हम से न सरमा के दिनों में
तुम भी आओगे मिरे घर जो सनम क्या होगा
तुम बाँकपन ये अपना दिखाते हो हम को क्या
टुकड़ा जहाँ गिरा जिगर-ए-चाक-चाक का
तुझ से गर वो दिला नहीं मिलता
तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू न करूँ मैं
तू देखे तो इक नज़र बहुत है
था जो शेर-ए-रास्त सर्व-ए-बोसतान-ए-रेख़्ता
तिरे मुँह छुपाते ही फिर मुझे ख़बर अपनी कुछ न ज़री रही
तिरा शौक़-ए-दीदार पैदा हुआ है
तसव्वुर तेरी सूरत का मुझे हर शब सताता है
तरसा न मुझ को खींच के तलवार मार डाल
तरह ओले की जो ख़िल्क़त में हम आबी होते
तमाशे की शक्लें अयाँ हो गई हैं
तख़्ता-ए-आब-ए-चमन क्यूँ न नज़र आवे सपाट
सुख़न में कामरानी कर रहा हूँ
सोते हैं हम ज़मीं पर क्या ख़ाक ज़िंदगी है
सोहबत है तिरे ख़याल के साथ
सीना है पुर्ज़े पुर्ज़े जा-ए-रफ़ू नहीं याँ
सिधारी क़ुव्वत-ए-दिल ताब और ताक़त से कह दीजो
शेर क्या जिस में नोक-झोक न हो
शेर दौलत है कहाँ की दौलत
शब-ए-हिज्राँ थी मैं था और तन्हाई का आलम था
शब-ए-हिज्र सहरा-ए-ज़ुल्मात निकली
शब-ए-हिज्र सहरा-ए-ज़ुल्मात निकली
शब शौक़ ले गया था हमें उस के घर तलक
शब में वाँ जाऊँ तो जाऊँ किस तरह
शब हम को जो उस की धुन रही है
सौ बार तुम तो सामने आ कर चले गए