Ghazals of Mushafi Ghulam Hamdani (page 3)
नाम | मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी |
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अंग्रेज़ी नाम | Mushafi Ghulam Hamdani |
जन्म की तारीख | 1751 |
मौत की तिथि | 1824 |
जन्म स्थान | Amroha |
सरासर ख़जलत-ओ-शर्मिंदगी है
सर अपने को तुझ पर फ़िदा कर चुके हम
सामने आँखों के हर दम तिरी तिमसाल है आज
सैराब आब-ए-जू से क़दह और क़दह से हम
सदा फ़िक्र-ए-रोज़ी है ता ज़िंदगी है
रुख़ ज़ुल्फ़ में बे-नक़ाब देखा
रो के इन आँखों ने दरिया कर दिया
रखें हैं जी में मगर मुझ से बद-गुमानी आप
रहमत तिरी ऐ नाक़ा-कश-ए-महमिल-ए-हाजी
रात पर्दे से ज़रा मुँह जो किसू का निकला
रात के रहने का न डर कीजिए
रात करता था वो इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से बहस
फिर ये कैसा उधेड़-बुन सा लगा
पटरे धरे हैं सर पर दरिया के पाट वाले
पस-ए-क़ाफ़िला जो ग़ुबार था कोई उस में नाक़ा-सवार था
परेशाँ क्यूँ न हो जावे नज़ारा
पर्दा उठा के मेहर को रुख़ की झलक दिखा कि यूँ
पाँव में क़ैस के ज़ंजीर भली लगती है
पहलू में रह गया यूँ ये दिल तड़प तड़प कर
पढ़ न ऐ हम-नशीं विसाल का शेर
ओ मियाँ बाँके है कहाँ की चाल
ने ज़ख़्म-ए-ख़ूँ-चकाँ हूँ न हल्क़-ए-बुरीदा हूँ
ने शहरियों में हैं न बयाबानियों में हम
ने बुत है न सज्दा है ने बादा न मस्ती है
नज़र क्या आए ज़ात-ए-हक़ किसी को
ना-तवानी के सबब याँ किस से उट्ठा जाए है
नसीम-ए-सुब्ह-ए-चमन से इधर नहीं आती
नसीबों से कोई गर मिल गया है
नर्मी-ए-बालिश-ए-पर हम को नहीं भाती है
नख़्ल लाले जा जब ज़मीं से उठा