इक तिरी याद गले ऐसे पड़ी है कि 'नजीब'
आज का काम भी हम कल पे उठा रखते हैं
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तेरे हमदम तिरे हमराज़ हुआ करते थे
एक मेरी जाँ में और इक लहर सहराओं में थी
ऐ मह-ए-हिज्र क्या कहें किसी थकन सफ़र में थी
ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबों को उखड़ा जाना था
वही रिश्ते वही नाते वही ग़म
शब के ख़िलाफ़ बरसर-ए-पैकार कब हुए
आसमानों से ज़मीनों पे जवाब आएगा
बदन से जाँ निकलना चाहती है
हर-चंद जैसा सोचा था वैसा नहीं हुआ
फिर यूँ हुआ कि मुझ पे ही दीवार गिर पड़ी
मौत से ज़ीस्त की तकमील नहीं हो सकती
ज़मीं पे पाँव ज़रा एहतियात से धरना