हम तो समझे थे कि चारों दर मुक़फ़्फ़ल हो चुके
क्या ख़बर थी एक दरवाज़ा खुला रह जाएगा
Faiz Ahmad Faiz
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एक मेरी जाँ में और इक लहर सहराओं में थी
कुछ इस के सिवा ख़्वाहिश-ए-सादा नहीं रखते
आसमानों से ज़मीनों पे जवाब आएगा
कि ख़ुद इंसान ढलता जा रहा है
आसमाँ सूरज सितारे बहर-ओ-बर किस के लिए
ज़रूरत कुछ ज़ियादा हो न जाए
तेरे हमदम तिरे हमराज़ हुआ करते थे
अभी कुछ काम बाक़ी हैं
सर-ए-नियाज़ वो सौदा नज़र नहीं आता
ज़र्द पत्तों को दरख़्तों से जुदा होना ही था
थकन से चूर बदन धूल में अटा सर था
वही रिश्ते वही नाते वही ग़म