इस दाएरा-ए-रौशनी-ओ-रंग से आगे
क्या जानिए किस हाल में बस्ती के मकीं हैं
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'नजीब' इक वहम था दो चार दिन का साथ है लेकिन
ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबों को उखड़ जाना था
इक तिरी याद गले ऐसे पड़ी है कि 'नजीब'
हर-चंद जैसा सोचा था वैसा नहीं हुआ
यक़ीं ने मुझ को असीर-ए-गुमाँ न रहने दिया
मौत से ज़ीस्त की तकमील नहीं हो सकती
ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबों को उखड़ा जाना था
आसमानों से ज़मीनों पे जवाब आएगा
अभी कुछ काम बाक़ी हैं
शब के ख़िलाफ़ बरसर-ए-पैकार कब हुए
दिए आँखों की सूरत बुझ चुके हैं
थकन से चूर बदन धूल में अटा सर था