ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबों को उखड़ जाना था
हम से इक रोज़ तिरा ग़म भी बिछड़ जाना था
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ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबों को उखड़ा जाना था
रुकूँ तो हुजला-ए-मंज़िल पुकारता है मुझे
अभी कुछ काम बाक़ी हैं
ज़िंदगी भर की कमाई ये तअल्लुक़ ही तो है
आसमानों से ज़मीनों पे जवाब आएगा
थकन से चूर बदन धूल में अटा सर था
ख़याल रखना
पैरहन उड़ जाएगा रंग-ए-क़बा रह जाएगा
नाव ख़स्ता भी न थी मौज में दरिया भी न था
किस ने वफ़ा के नाम पे धोका दिया मुझे
शब के ख़िलाफ़ बरसर-ए-पैकार कब हुए
यक़ीं ने मुझ को असीर-ए-गुमाँ न रहने दिया