रुकूँ तो हुजला-ए-मंज़िल पुकारता है मुझे
क़दम उठाऊँ तो रस्ता नज़र नहीं आता
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हर-चंद जैसा सोचा था वैसा नहीं हुआ
फिर यूँ हुआ कि मुझ पे ही दीवार गिर पड़ी
आसमानों से ज़मीनों पे जवाब आएगा
किरन तो घर के अंदर आ गई थी
नाव ख़स्ता भी न थी मौज में दरिया भी न था
वही रिश्ते वही नाते वही ग़म
इक वहम की सूरत सर-ए-दीवार-ए-यक़ीं हैं
ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबों को उखड़ जाना था
सर-ए-नियाज़ वो सौदा नज़र नहीं आता
कुछ इस के सिवा ख़्वाहिश-ए-सादा नहीं रखते
ज़मीं पे पाँव ज़रा एहतियात से धरना
यक़ीं ने मुझ को असीर-ए-गुमाँ न रहने दिया