फिर यूँ हुआ कि मुझ पे ही दीवार गिर पड़ी
लेकिन न खुल सका पस-ए-दीवार कौन है
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तेरे हमदम तिरे हमराज़ हुआ करते थे
बदन से जाँ निकलना चाहती है
ज़मीं पे पाँव ज़रा एहतियात से धरना
इक तिरी याद गले ऐसे पड़ी है कि 'नजीब'
हर-चंद जैसा सोचा था वैसा नहीं हुआ
थकन से चूर बदन धूल में अटा सर था
कुछ इस के सिवा ख़्वाहिश-ए-सादा नहीं रखते
वही रिश्ते वही नाते वही ग़म
ज़र्द पत्तों को दरख़्तों से जुदा होना ही था
निशाँ किसी को मिलेगा भला कहाँ मेरा
दिए आँखों की सूरत बुझ चुके हैं
इक रंज-ए-उम्र दे के चला है किधर मुझे