ज़मीं पे पाँव ज़रा एहतियात से धरना
उखड़ गए तो क़दम फिर कहाँ सँभलते हैं
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ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबों को उखड़ा जाना था
पैरहन उड़ जाएगा रंग-ए-क़बा रह जाएगा
शब भली थी न दिन बुरा था कोई
आसमानों से ज़मीनों पे जवाब आएगा
किरन तो घर के अंदर आ गई थी
दिल को हर गाम पे धड़के से लगे रहते हैं
ऐ मह-ए-हिज्र क्या कहें किसी थकन सफ़र में थी
ज़िंदगी भर की कमाई ये तअल्लुक़ ही तो है
इक रंज-ए-उम्र दे के चला है किधर मुझे
बदन से जाँ निकलना चाहती है
इक तिरी याद गले ऐसे पड़ी है कि 'नजीब'