ज़िंदगी भर की कमाई ये तअल्लुक़ ही तो है
कुछ बचे या न बचे इस को बचा रखते हैं
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इक वहम की सूरत सर-ए-दीवार-ए-यक़ीं हैं
मिरी नुमूद किसी जिस्म की तलाश में है
ख़्वाब-गाह
आसमानों से ज़मीनों पे जवाब आएगा
मौत से ज़ीस्त की तकमील नहीं हो सकती
हम तो समझे थे कि चारों दर मुक़फ़्फ़ल हो चुके
ख़याल रखना
किस ने वफ़ा के नाम पे धोका दिया मुझे
फिर यूँ हुआ कि मुझ पे ही दीवार गिर पड़ी
तेरे हमदम तिरे हमराज़ हुआ करते थे
ज़रूरत कुछ ज़ियादा हो न जाए
किरन तो घर के अंदर आ गई थी