ग़रज़ की मैली दराज़ चादर
लपेट कर वो
मुनाफ़िक़त के सियाह बिस्तर पे सो रही थी
मिरी बरहना निगाह में रत-जगों की सुर्ख़ी जमी हुई है
पहाड़ सी रात रेज़ा रेज़ा बिखर रही थी
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ऐ मह-ए-हिज्र क्या कहें किसी थकन सफ़र में थी
ज़र्द पत्तों को दरख़्तों से जुदा होना ही था
रुकूँ तो हुजला-ए-मंज़िल पुकारता है मुझे
सर-ए-नियाज़ वो सौदा नज़र नहीं आता
ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबों को उखड़ा जाना था
मौत से ज़ीस्त की तकमील नहीं हो सकती
निशाँ किसी को मिलेगा भला कहाँ मेरा
तिरा रंग-ए-बसीरत हू-ब-हू मुझ सा निकल आया
इक तिरी याद गले ऐसे पड़ी है कि 'नजीब'
शब के ख़िलाफ़ बरसर-ए-पैकार कब हुए
दिल को हर गाम पे धड़के से लगे रहते हैं