आसमानों से ज़मीनों पे जवाब आएगा
एक दिन रात ढले यौम-ए-हिसाब आएगा
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ख़याल रखना
ज़रूरत कुछ ज़ियादा हो न जाए
रुकूँ तो हुजला-ए-मंज़िल पुकारता है मुझे
वही रिश्ते वही नाते वही ग़म
हम अपने घर से ब-रंग-ए-हवा निकलते हैं
मौत से ज़ीस्त की तकमील नहीं हो सकती
मिरी ज़मीं मुझे आग़ोश में समेट भी ले
ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबों को उखड़ा जाना था
बदन से जाँ निकलना चाहती है
दिल को हर गाम पे धड़के से लगे रहते हैं
इक वहम की सूरत सर-ए-दीवार-ए-यक़ीं हैं