मिरी ज़मीं मुझे आग़ोश में समेट भी ले
न आसमाँ का रहूँ मैं न आसमाँ मेरा
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अंधे बदन में ये सहर-आसार कौन है
नाव ख़स्ता भी न थी मौज में दरिया भी न था
हम तो समझे थे कि चारों दर मुक़फ़्फ़ल हो चुके
किरन तो घर के अंदर आ गई थी
दिए आँखों की सूरत बुझ चुके हैं
मौत से ज़ीस्त की तकमील नहीं हो सकती
ख़्वाब-गाह
बदन से जाँ निकलना चाहती है
शब के ख़िलाफ़ बरसर-ए-पैकार कब हुए
कि ख़ुद इंसान ढलता जा रहा है
तिरा रंग-ए-बसीरत हू-ब-हू मुझ सा निकल आया
ज़रूरत कुछ ज़ियादा हो न जाए