'नजीब' इक वहम था दो चार दिन का साथ है लेकिन
तिरे ग़म से तो सारी उम्र का रिश्ता निकल आया
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एक मेरी जाँ में और इक लहर सहराओं में थी
रुकूँ तो हुजला-ए-मंज़िल पुकारता है मुझे
ज़रूरत कुछ ज़ियादा हो न जाए
ज़मीं पे पाँव ज़रा एहतियात से धरना
मिरी ज़मीं मुझे आग़ोश में समेट भी ले
मिरी नुमूद किसी जिस्म की तलाश में है
आसमाँ सूरज सितारे बहर-ओ-बर किस के लिए
बदन से जाँ निकलना चाहती है
कि ख़ुद इंसान ढलता जा रहा है
तेरे हमदम तिरे हमराज़ हुआ करते थे
वही रिश्ते वही नाते वही ग़म
ख़याल रखना