किस ने वफ़ा के नाम पे धोका दिया मुझे
किस से कहूँ कि मेरा गुनहगार कौन है
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आसमानों से ज़मीनों पे जवाब आएगा
इक तिरी याद गले ऐसे पड़ी है कि 'नजीब'
इक वहम की सूरत सर-ए-दीवार-ए-यक़ीं हैं
इश्क़-आबाद फ़क़ीरों की अदा रखते हैं
यक़ीं ने मुझ को असीर-ए-गुमाँ न रहने दिया
हम तो समझे थे कि चारों दर मुक़फ़्फ़ल हो चुके
शब भली थी न दिन बुरा था कोई
तिरा रंग-ए-बसीरत हू-ब-हू मुझ सा निकल आया
तेरे हमदम तिरे हमराज़ हुआ करते थे
वही रटे हुए जुमले उगल रहा हूँ अभी
ख़याल रखना
फिर यूँ हुआ कि मुझ पे ही दीवार गिर पड़ी