सर-ए-महशर अगर पुर्सिश हुई मुझ से तो कह दूँगा
सरापा जुर्म हूँ अश्क-ए-नदामत ले के आया हूँ
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वो ज़ुल्म भी अब ज़ुल्म की हद तक नहीं करते
मैं हूँ तिरी निगाह में तू है मिरी निगाह में
मानूस हो चुके हैं तिरे आस्ताँ से हम
तन्हाई के लम्हात का एहसास हुआ है
न अरमाँ ले के आया हूँ न हसरत ले के आया हूँ
एक धुँदला सा सितारा भी बहुत होता है
हुस्न माइल ब-सितम हो तो ग़ज़ल होती है
इस लिए जफ़ाओं पर मुझ को मुस्कुराना था
कुछ ख़ुद भी हूँ मैं इश्क़ में अफ़्सुर्दा ओ ग़मगीं
ग़ुंचों के तबस्सुम पर हम ग़ौर नहीं करते