वो यूँ मिला है कि जैसे कभी मिला ही न था
हमारी ज़ात पे जिस की इनायतें थीं बहुत
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जानिब-ए-दश्त कभी तुम भी निकल कर देखो
कोई सन्नाटा सा सन्नाटा है
मैं बे-हुनर था मगर सोहबत-ए-हुनर में रहा
एहसास के शरर को हुआ देने आऊँगा
तुझ से मिलूँगा फिर कभी ख़्वाब-ओ-ख़याल भी नहीं
तुम तो औरों पे न पत्थर फेंको
रूह-ए-एहसास है तही-दामन
वो भी क्या दिन थे कि जब इश्क़ किया करते थे
हाँ ये ख़ता हुई थी कि हम उठ के चल दिए
इस तवक़्क़ो पे खुला रक्खा गरेबाँ अपना
वो एक शख़्स कि जिस से शिकायतें थीं बहुत