मिरी जानिब से उन के दिल में किस शिकवे पे कीना है
वो शिकवा जो ज़बाँ पर क्या अभी दिल में नहीं आया
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ऐ शम्अ' तुझ पे रात ये भारी है जिस तरह
आज़ादियों का हक़ न अदा हम से हो सका
मिरे मुक़द्दर में जो लिखा था नसीब से वो पहुँच न पाया
मय-कशो मय की कमी बेशी पे नाहक़ जोश है
उन के लब पर ज़िक्र आया बे-हिजाबाना मेरा
दिल को हुआ है इश्क़ मोहब्बत के दाग़ से
कभी दामान-ए-दिल पर दाग़-ए-मायूसी नहीं आया
दो आलम से गुज़र के भी दिल-ए-आशिक़ है आवारा
मोहब्बत-आश्ना दिल मज़हब-ओ-मिल्लत को क्या जाने
दिल रहे या न रहे ज़ख़्म भरे या न भरे
इब्तिदा से आज तक 'नातिक़' की ये है सरगुज़िश्त
इक दाग़-ए-दिल ने मुझ को दिए बे-शुमार दाग़