ऐ शम्अ' तुझ पे रात ये भारी है जिस तरह
मैं ने तमाम उम्र गुज़ारी है इस तरह
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जो मेरे दिल में सहव तिरी याद से हुआ
कह रहा है शोर-ए-दरिया से समुंदर का सुकूत
आज़ादियों का हक़ न अदा हम से हो सका
क्या बताऊँ दिल कहाँ है और किस जा दर्द है
कभी दामान-ए-दिल पर दाग़-ए-मायूसी नहीं आया
उन के लब पर ज़िक्र आया बे-हिजाबाना मेरा
मिरी जानिब से उन के दिल में किस शिकवे पे कीना है
मिरे मुक़द्दर में जो लिखा था नसीब से वो पहुँच न पाया
इब्तिदा से आज तक 'नातिक़' की ये है सरगुज़िश्त
दो आलम से गुज़र के भी दिल-ए-आशिक़ है आवारा
दिल है किस का जिस में अरमाँ आप का रहता नहीं
है वही नाज़-आफ़रीं आईना-ए-नियाज़ में