अपना बादल तलाशने के लिए
उमर भर धूप में नहाए हम
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ये जो मुझ में अज़ाब है प्यारे
बिना रोए गुज़रना उस गली से
फ़ोन पर बात हुई उस से तो अंदाज़ा हुआ
कोई मुझ से ख़फ़ा है इस लिए ख़ुद से ख़फ़ा हूँ
यूँ ही गलियों में मुक़द्दर दर-ब-दर मेरा भी है
सीने में मिरे बोझ भी और दहका चमन भी
चोट खाए हुए लम्हों का सितम है कि उसे
अब पसर आए हैं रिश्तों पे कुहासे कितने
किस ने सोचा था कि ख़ुद से मिल कर
जो ये कहते थे कि मर जाना है
मिरे क़रीब कोई ख़्वाब कैसे आ पाता