देख ले इस चमन-ए-दहर को दिल भर के 'नज़ीर'
फिर तिरा काहे को इस बाग़ में आना होगा
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जा पड़े चुप हो के जब शहर-ए-ख़मोशाँ में 'नज़ीर'
ऐ दिल जो ये आँख आज लड़ाई उस ने
मह है अगर जू-ए-शीर तुम भी ज़री-पोश हो
मिज़्गाँ वो झपकता है अब तीर है और मैं हूँ
फ़ना
गुलज़ार है दाग़ों से यहाँ तन-बदन अपना
मैं हूँ पतंग-ए-काग़ज़ी डोर है उस के हाथ में
शब को आ कर वो फिर गया हैहात
उधर उस की निगह का नाज़ से आ कर पलट जाना
खोली जो टुक ऐ हम-नशीं उस दिल-रुबा की ज़ुल्फ़ कल
तर रखियो सदा या-रब तू इस मिज़ा-ए-तर को
पस उस के गए सिपर जो हम कर सीना