अंधेरा माँगने आया था रौशनी की भीक
हम अपना घर न जलाते तो और क्या करते
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मालूम कि इंसान किसे कहते हैं
लिल्लाह मिरी सोज़िश-ए-पैहम को न छेड़
हर साँस में इक हश्र बपा है वाइ'ज़
एक झोंका इस तरह ज़ंजीर-ए-दर खड़का गया
आस ही से दिल में पैदा ज़िंदगी होने लगी
हिन्द के मय-ख़ाने से इक साथ उठे दो बादा-ख़्वार
खुलती हैं वो मस्त आँखें हंगाम-ए-सहर ऐसे
और तो कुछ न हुआ पी के बहक जाने से
इस वक़्त ग़ज़ल की बात न कर
साहिल पे अगर मिरा सफ़ीना आ जाए
हमारे अहल-ए-चमन हम से सरगिराँ तो नहीं