लिल्लाह मिरी सोज़िश-ए-पैहम को न छेड़
जा राह ले अपनी तपिश-ए-ग़म को न छेड़
मैं ने तिरी जन्नत को कभी छेड़ा है
तू भी मिरे ख़ामोश जहन्नम को न छेड़
Ahmad Faraz
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ये करें और वो करें ऐसा करें वैसा करें
दिन ढला जाता है शाम आती है घबराता हूँ मैं
तूफ़ाँ से थपेड़ों के सहारे निकल आए
हुए मुझ से जिस घड़ी तुम जुदा तुम्हें याद हो कि न याद हो
खुलती हैं वो मस्त आँखें हंगाम-ए-सहर ऐसे
और तो कुछ न हुआ पी के बहक जाने से
पेशानी पे सय्याल नगीना क्यूँ है
मिरी बे-ज़बान आँखों से गिरे हैं चंद क़तरे
प्यारा हिन्दोस्तान
सुना है कि उन से मुलाक़ात होगी
आस ही से दिल में पैदा ज़िंदगी होने लगी
'प्रेमचंद' एक था एक से इक जहाँ बन गया